Thursday, March 25, 2010

लड़की होने का दर्द ............

लड़की होने का दर्द



अपनी इच्छाओं और सपनों को ध्वस्त होते मैं देखती रही थी, मूक दर्शक की तरह। यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही हरेक लड़कियों की तरह मेरे भी कुछ अरमान दिल में हिलोरे लेने लगे थे। मैने भी अपने जीवन साथी की ए क धुंधली से तस्वीर अपने मन-मंदिर में बिठायी थी। ए कांत में अक्सर उस सपने के राजकुमार के ख्यालों में खो जाती थी। और जब सपना टूटता तो सोचती काश यह सपने सच होते। पर सपने तो सपने होते हैं, वो तो आंख खोलते ही पानी की बूंद के बुलबुले की तरह खत्म हो जाते हैं। मेरी अधिकतर सखियों की शादी हो चुकी थी शेष चंदा और रूपा ही बची थी, उनकी भी शादी तय हो चुकी थी। सभी सखियों का ससुराल अच्छा मिला था और उनके सपने का राजकुमार हकीकत के राजकुमार से अधिक मिलता जुलता हुआ था। वहीं मेरे सारे सपने आज टूट गये हैं। ए क कांच के घर की तरह जो समय की आंधी को भी नहीं सह सका और धूल में मिल गया। अपनी शादी की बात सुनकर मै कितनी खुश हुई थी। लगा था जैसे मेरा सपना अब सच होने वाला है। पर यह खुशी कु़छ ही पलों की थी। लोगों के मुंह से अपने होने वाले जीवन साथी के बारे में इस तरह(?) की बातें सुनकर। सारे सपने ए क वर्फ के टुकड़े की तरह सच्चाई की गर्मी से पिघल गये और शेष रह गया जमीन पर कीचड़ ही कीचड़। लगा जैसे मैं अपने ही परिवार के ऊपर आज तक बोझ थी और मेरी मां उस बोझ को उतार फेंकना चाहती थी और आज शायद वह अपने इस बोझ को उतार फेंकने में कामयाब भी हो गयी थीं। उसके इस कार्य में अस्पष्ट रूप से मेरे प्रिय भाई बबलू का भी पूरा-पूरा सहयोग था।
मैं अच्छी तरह जानती थी कि अगर मेरा भाई चाहेगा ता उस जगह मेरी शादी नहीं होगी, पर वह भी शायद मुझे मेरी मां की तरह अपने घर से निकाल फेंकना चाहता था कूड़े करकट की तरह। इसका जिम्मेदार मैं बबलू को नहीं मानती, क्योंकि जब जननी ही मुझे अपने घर में शरण देना नही चाहती तो वह तो भाई था। अब सोचतीं हूं तो आंखों से आंसू नहीं थमते। पापा जब जिन्दा थे तो मेरी ए क मांग को पूरा करने के लिए क्या से क्या नहीं कर देते थे। मुझे अब भी अच्छी तरह याद है, मै अक्सर रूठ जाया करती थी तब पापा अपनी गोद में उठाकर मुझे मनाते थे, और घर के सभी लोगों को डांटते थे की कोई मेरे बेटे को कुछ नहीं कहेगा। पापा मुझे पूना बेटा कहकर बुलाते थे। पूना इसलिए की मेरा जन्म पूना शहर में हुआ था। जब तक पापा जिन्दा थे तब तक कभी भी मुझे किसी भी तरह की तकलीफ न होने दी और न ही कभी ए क पल भी उदास होने दिया। मेरी हर अच्छी बुरी मांगों को पापा ने पूरा किया। मेरी मां शुरू से ही मुझसे कुछ उखड़ी-उखड़ी सी रहती थी। जैसे मैं उनकी बेटी ही नहीं हूं। मै मम्मी के इस नाराजगी का कारण जानने की बहुत कोशिश करती रही पर कभी सफल न हो सकी। पापा के रहते हुए यह मेरी पहली असफलता थी। जिसकों मै चाह कर भी नहीं जान पायी थी। पापा को गुजरे आज पूरे पांच वर्ष बीत चुके हैं। इन पांच वर्षो में अपने पापा की लाडली पूनम (पूना) अपने ही भाई-बहनों और मां की आंख की किरकिरी बन गई है।
मां की तरह ही मेरा भाई बबलू मुझे ए क बकरी की तरह शादी के बहाने दूल्हे रूपी कसाई के हाथों बेंच देना चाहता था। कभी-कभी इच्छा होती कि अपने भाई से कहूं कि क्या तुम मेरे राखी का यही बदला चुका रहे हो? पर शर्मे के मारे चुप रह जाती थी। तब लगता था कि ए क लड़की कितनी बेवस होती है। उसकी इच्छाए कोई मायने नहीं रखती। न ही पिता के घर में न ही पति के घर में। दोनो ही घरों में वह केवल ए क काम करने वाली नौकरानी के रूप में ही इस्तेमाल होती रहती है।
मेरी सहेली रूना की शादी इस साल होने वाली है। उसके लिए कितने ही लड़कों को देखा गया पर रूना हर लड़के में कोई न कोई खामी निकाल कर उसे नापसंद कर देती थी। हम सखियां जब उससे इस तरह से हर लड़के को नापसंद करने का कारण पूछती थी तो वह कितना ढिठाई से कहती ती कि जीवन तो मुझे गुजारना है उस लड़के के साथ और अगर मेरे मनपसंद का लड़का नहीं होगा तो मै कैसे उसके साथ अपनी जिन्दगी गुजारूगीं? रूना की इस तरह की बातों पर उसे कितना भला-बुरा हम सभी सखियां कहती थी। मेरी तो शर्म के मारे बुरा हाल हो जाता। रूना के इस तरह की बातें करने पर गांव वाले भी उसे संदेह की नजरों से देखते थे। गांव की बूढ़ी औरतें तो यह भी कहती थी कि यह फला लड़के से फंसी है और इस तरह की न जाने कितनी ही बातें रूना के बारे में आये दिन सुनने को मिलती थी। लेकिन ए क दिन रूना की शादी ए क अच्छे पढ़े-लिखे लड़के के साथ हुई, जिसके साथ वह मजे से जीवन गुजार रही है। आज जब अपने साथ होते हुए इस अन्याय को देखती हूं तो सोचती हू कि क्यों नही मै भी रूना की तरह हुई। क्यों नहीं मैं भी बेशर्म हो गईअगर उस समय मै रूना की तरह बेशर्म हो गयी होती तो आज इस तरह से घुट-घुट कर जीना तो नहीं पड़ता। मै बचपन से ही जिद्दी किस्म की लड़की थी और मेरी सारी जिद को पापा ने पूरा किया था। आज इस शादी के शुभ अवसर पर पापा की याद आती है। मन करता है कि उड़कर पापा के पास जली जाऊं और उनकी गोद में छुप कर पूछूं कि क्या पापा आपकी बेटी इस लड़के के साथ सुखी जीवन गुजार सकती है? क्या आपने मुझे इसी दिन के लिए इतना बडा किया था? क्यों नहीं आपने मुझे मेरे पैदा होते ही गला घोंट कर मार दिया। अगर उस समय मेरी जीवन लीला समाप्त कर दिये होते तो आज आपकी लाडली बेटी को यह दिन नहीं देखना पड़ता और मैं फूट-फूटकर रोने लगी थी। बहुत देर तक रोती रही न जाने कब तक। आंख खुली तो सुबह की रोशनी चारों तरफ फैल चुकी थी। रोशनी में आंख खोला नहीं जा रहा था, लगता था जैेसे यह आंखे अंधेरे को सहने की आदी हो गयी हैं। मेरे पैदा होने के बाद मेरे घर में बहुत मन्नतों के बाद बबलू का जन्म हुआ था। उसके जन्म पर पापा ने पैसे को पानी की तरह बहा दिया था। हम चार बहनों के बाद बबलू पैदा हुआ था।
पापा ने गांव में अष्टजाम करवाया था। गांव में धूम मच गयी थी। दादी ने मेरी पीठ पर लड्डू फोड़ी थी। सभी का मानना था कि मेरे पैदा होने से ही बबलू का जन्म हुआ है। उस समय परिवार के लिए लक्की थी, जिसके कारण मेरी हर अच्छी-बुरी इच्छाओं को पापा और दादी पूरा किया करते थे। लेकिन मां मुझसे नाराज रहती थी। लगता था जैसे मैने उनकी उच्छाओं के विपरीत उनके घर में जन्म ले लिया हो। जबकि मेरी इसमें कोई गलती नहीं थी। पापा के मरने के बाद मै ए क दम से अनाथ सी हो गयी। दादी पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थी। मै मां की उपेक्षाओं और ए क उम्मीद के साथ जीती रही थी कि मेरा भाई बबलू बडा होगा तो वह मेरी भावनाओं और इच्छाओं को अहमियत देगा। वही बबलू आज मेरे जीवन का सौदा करके आया है। वैसे मैने महसूस किया है कि बबलू भी इस रिश्ते से बहुत खुश नहीं है। लगता है जैसे उसे भी मेरी खुशियों का आभास है, पर पैसा खर्च न करना पड़े इसलिए वह मेरा रिश्ता तय कर आया है। मां और मेरी बड़ी बहन आरती के पति कृष्णा जीजा जी इस रिश्ते से बहुत खुश थे। जीजाजी नहीं चाहते थे कि मै उनके ससुराल में रहूं। क्योंकि मैने कभी उनकी शारीरिक भूख को शांत नहीं किया था।
वह जब भी हमारे घर आते तो मुझसे अधिक मेरे शरीर से खेलना चाहते थे और अपनी हवश की आग को मेरे शरीर से शांत करना चाहते थे। जीजाजी के इस काम में मां भी थोड़ा बहुत सहयोग करती थी। जब जीजा जी की इस हरकत की शिकायत मां से करती तो वह कहती कि वह तुम्हारे जीजा जी ही तो हैं उनका इस तरह करने का हक है। वह मजाक में ए ेसा वैसा कुछ कर भी देते हैं तो क्या अंतर पड़ता है। वह तुम्हारी बहने के पति है तुमसे उनका हंसी मजाक का रिश्ता है। ए ेसा तो चलता ही रहता है। मां की इन बातों को सुनकर मैं सन्न रह जाती। सोचती जब बाड़ ही खेत को खाने लगे तो औरों से क्या शिकायत करना। मै चुपचाप अपने कमरे में आकर रोने लगती, बहुत देर तक रोती रहती। सोचती अब मै अपने ही घर में बेगानी हूं। मेरी बातों को सुनने वाला कोई नहीं है। अपने साथ होते इस व्यवहार को सहती रही कभी ऊफ तक नही की। फिर भी मां मुझसे सीधे मुंह बात नहीं करती थी। हरदम गाली से ही बात शुरू करती थी। मुझसे दो बहनें सुमन और निशा छोटी थी पर कभी भी मां या बबलू उन दोनों से कुछ भी नही कहते थे। मै ही सारा काम करती थी। खाना बनाने से लेकर सभी का कपड़ा धोना और घर की साफ-सफाई तक करना मेरे ही जिम्मे था। घर का सारा काम मै ही करती थी ए क नौकरानी की तरह फिर भी मां मेरी शिकायत गांव के लोगों से करती रहती थी कि पूनम घर का कोई काम नहीं करती, सारा दिन सोती रहती है।
मां के इस झूठ को सुनकर मै अवाक सी रह जाती। मेरा भाई भी इस बात पर मुझे ही भला बुरा कहता, कभी-कभी मार भी देता था। बबलू मुझसे छोटा था फिर भी मै उसके थप्पड़ या बात का कोई प्रत्युत्तर नही देती और अपनी किस्मत की बात सोचकर चुप रह जाती। भाई-बहनों और मां के इस व्यवहार को देख-सुनकर सोचती थी कि शादी के बाद मेरे किस्मत के दरवाजे खुलेंगे। तब शायद मै सुख-चैन से जी सकूंगी। लेकिन यह मेरा बहम था। मैने तो केवल सपनों में ही जीना सीखा था। हकीकत के रास्ते तो कांटों से भरे थे। मैं ए क नरक से निकलकर दूसरे नरक में धकेली जा रही थी पर ए क लड़की होने के कारण सब कुछ सहने को मजबूर थी। आश्चर्य भी हुआ कि जिस मां ने मेरे साथ इस तरह का व्यवहार किया उसका साथ मेरा भाई भी दे रहा है। बबलू ने तो दुनिया देखी है, फिर क्यों मेरी मां के इरादे को पूरा होने दे रहा है? इसलिए कि इस शादी से उसे कुछ पैसे बच जायेंगे। क्या मैंने उसकी कलाई में इसी दिन के लिए राखियां बांधती रही थी कि वहीं हाथ मुझे कसाई के खूंटे से बांध दें। तभी किसी ने मुझे झकझोरा। मैं जैसे सोते से जागी, पलटकर देखा तो दांत निपोरे तारकेश्वर खड़ा था। उसने शराब पी रखी थी। ऐसे क्या देख रही है। जा कुछ खाने को ला। मैं चुपचाप खाना लाने रसोई में चली गयी।

Tuesday, March 23, 2010

अपने ब्राण्ड द्वारा ही सच्ची पत्रकारिता करने की दुहाई देते रहते हैं?

ढहते किलों के बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया को नया मंत्र मिल गया है. वह मंत्र है- आतंकवाद. आतंकवाद से इस लड़ाई में मीडिया सीधे जनता के साथ मिलकर मोर्चेबंदी कर रहा है. यह मोर्चेबंदी अनायास नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि अचानक ही इलेक्ट्रानिक मीडिया नैतिक रूप से बहुत जिम्मेदार हो गया है. कारण दूसरे हैं जो कि उसकी व्यावसायिक मजबूरियो से जोड़ते हैं. वैश्विक मंदी के इस दौर में आतंकवाद ही एक ऐसा मंत्र है जो ज्यादा देर तक दर्शकों को बुद्धूबक्से से जोड़कर रख सकता है. इलेक्ट्रानिक मीडिया इस मौके को किसी कीमत पर नहीं चूकना चाहता.

अगर आप पिछले साल भर का डाटा उठाकर देख लें तो इलेक्ट्रानिक मीडिया ने हमेशा छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ बनाया है. अभी हाल में मुंबई में राज ठाकरे का आतंक टीवी पर खूब बिका. राज ठाकरे के गुण्डों ने जो कुछ किया वह शर्मनाक था लेकिन इतना भी नहीं था जितना इलेक्ट्रानिक मीडिया ने हौवा बनाया. टीवी पर आयी खबरों को देखकर हमने अपने एक मित्र को फोन किया कि आपको इस बारे में कुछ लिखना चाहिए. उन्होंने छूटते ही जवाब दिया ऐसा कुछ है ही नहीं जैसा टीवी में दिखाया जा रहा है तो इसमें लिखने जैसा क्या है. उनका कहना था टीवी जो कुछ दिखा रहा है उससे आगे बहुत कुछ हो सकता है. और वही हुआ. इस घटना के पहले दिल्ली में विस्फोट हुआ था. कोई पंद्रह दिन तक लगातार इलेक्ट्रानिक मीडिया जांचकर्ता बनने का नाटक करता रहा. हिन्दी के एक चैनल आज तक ने बाकायदा दिल्ली में प्रचार अभियान चलाया, किराये पर बड़े-बड़े होर्डिंग लगवाये जिसमें लिखा गया था कि आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में हमारा साथ दीजिए. लोगों ने कितना साथ दिया मालूम नहीं लेकिन उस प्रचार अभियान को देखकर लगा कि इलेक्ट्रानिक चैनल खबर दिखाने के अलावा भी बहुत कुछ कर सकते हैं. दिल्ली-मुंबई में हई आतंकी घटनाओं से थोड़ा और पहले जाए तो आरूषि हत्याकाण्ड मीडिया के लिए संजीवनी का काम कर रहा था. आरूषि और आतंकवाद के बीच राम की रामायण और रावण की लंका ने भी कुछ दिनों तक इलेक्ट्रानिक मीडिया की टीआरपी बनाये रखी.
आम आदमी को यह सब क्यों बुरा लगे? अगर मीडिया उसके हक और हित की बात करता है तो उसको खुश होना लाजिमी है. कुछ हद तक संतुलित प्रिंट मीडिया भी कई बार इलेक्ट्रानिक मीडिया की इस बाढ़ में उसके साथ बह जाता है. इस बार मुंबई में आतंकी हमले के बाद प्रिंट जहां संतुलित व्यवहार कर रहा है वही इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने स्वभाव के अनुसार एक बार फिर अपनी ही धारा में बह निकला है. ६२ घण्टों तक लाईव मैराथन कवरेज दिखाने के बाद जब पत्रकार बिरादरी अपने स्टूडियो लौटी तो उसने देश के राजनीतिज्ञों को निशाने पर ले लिया है. मीडिया इतना तुर्श है कि उसके हाथ में गनमाईक की जगह अगर गन हो तो वह खुद फैसले करना शुरू कर दे और अपना राज स्थापित कर दे. मसलन हर एंकर बोलते समय इस बात का जरा भी ध्यान नहीं रखता कि वह क्या बोल रहा है. सरकार के तलवे चाटनेवाले उसके संपादकों और मालिकों की बात अभी छोड़ देते हैं जिसकी दी गयी सैलेरी पर पत्रकार अपना परिवार पालता है. उनकी ही बात करते हैं जो गनमाईक लिए स्टूडियो से लेकर बाहर मैदान तक एक बाईट के लिए भागते रहते हैं वे आखिर किस रणनीति के तहत आतंकवाद को भयानक समस्या बता रहे हैं? वे राजनीतिक प्रक्रिया, प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठाने की बजाय उसे खारिज क्यों कर रहे हैं? वे ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं मानों वे ही देश के लोकतांत्रिक ढांचे में चुनकर वहां तक पहुंचे है?एनडीटीवी का उदाहरण लीजिए. कोई शक नहीं कि इनके कोई आधा दर्जन पत्रकारों ने मुंबई जाकर लाईव रिपोर्टिंग की और 'पल-पल' की खबरें हम तक पहुंचाकर बहुत महान काम किया है. लेकिन अब वह क्या कर रहा है? आतंकवाद और आम आदमी के बीच वह एक पक्ष बन गया है. लगता है एनडीटीवी को ऐसा एहसास हो गया है कि वह चुनाव लड़े तो ज्यादा बेहतर सरकार दे सकता है. इसलिए वह एक मीडिया घराने की बजाय किसी राजनीतिक दल की तरह व्यवहार कर रहा है और सवाल उठाने की बजाय निर्णय सुनाने के काम में लग गया है. आज शाम भाजपा के नेता अरूण जेटली ने कहा भी कि बेहतर हो कि "आप (एनडीटीवी) पत्रकारिता ही करें और आतंकवाद के खिलाफ मीडिया की भूमिका में ही रहे." लेकिन एनडीटीवी भला ऐसा क्यों करेगा? इस समय उन्माद का माहौल है. जो आतंकवादी घटना हुई है उससे पूरा देश सकते में है.(हालांकि यह बात मैं पूरे यकीन से नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि मेरी लोगों से फीडबैक अलग है) फिर भी मीडिया ने इतनी सनसनी तो पैदा कर ही दी है ६२ घण्टों का लाईव कवरेज भारत के शहरों में चर्चा का विषय बन गया है. आज टाईम्स आफ इंडिया ने लिखा है मुंबई कल दिनभर केवल आतंकी मुटभेड़ की ही बातें करती रही. मुंबई ही क्यों, यहां दिल्ली में भी लोग दिन-रात टीवी से चिपके रहे. इसलिए नहीं कि उनकी बड़ी सहानुभूति थी बल्कि इसलिए कि अधिकांश लोग क्लाईमेक्स जानना चाहते यह इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए बहुत अनुकूल माहौल होता है जब मिनट-दर-मिनट लोग उससे बंधने को मजबूर हों. फिर मौका चाहे जो हो. या तो कोई बच्चा खड्ड में गिर जाए या फिर आतंकवादियों के खिलाफ एक लंबी मुटभेड़ चल जाए. लाईव फुटेज और कवरेज के ऐसे स्रोत इन मौकों पर फूटते हैं जो इलेक्ट्रानिक मीडिया को अनिवार्य जरूरत बना देते है. यहां तक तो हुई जरूरत की बात. अब यहां से इलेक्ट्रानिक मीडिया व्यवसाय जगत में प्रवेश कर जाता है.
अगर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो बीच में विज्ञापनों का ब्रेक न चलाता. अगर आतंकवाद के खिलाफ इलेक्ट्रानिक मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो चिल्ला-चिल्लाकर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने की दुहाई न देता. अगर असल मुद्दा आतंकवाद है तो फिर चैनलों के ब्राण्डों पर असली पत्रकारिता की अलाप क्यों लगायी जाती है? क्यों टीवी के नौसिखिए लड़के / लड़कियां हमेशा अपने ब्राण्ड द्वारा ही सच्ची पत्रकारिता करने की दुहाई देते रहते हैं? क्यों टीवी वाले यह बताते हैं कि उन्हें इस मुद्दे पर इतने एसएमएस मिले हैं जबकि एक एसएमएस भेजने के लिए उपभोक्ता की जेब से जो पैसा निकलता है उसका एक हिस्सा टीवी चैनलों को भी पहुंचता है. इन सारे सवालों का जवाब यही है कि आखिरकार टीवी न्यूज बहुत संवेदनशाली धंधा है. और जिन पर इस बार हमला हुआ है वे भी धंधेवाले लोग हैं. एक धंधेबाज दूसरे धंधेबाज के लिए गला फाड़कर नहीं चिल्लाएगा तो क्या करेगा? आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के उनके मंसूबे तब दगा देने लगते हैं जब पता चलता है कि जिस चैनल की टीआरपी बढ़ी उसने अपनी विज्ञापन दर बढ़ा दी. है कोई चैनलवाला जो इस बात से इंकार कर दे?

कल तक हम खबर लिखते थे और आज खुद खबर बन गये हैं.

आज इस पत्रकारिता के बदलते परिवेश को देख कर बहुत दुख होता है। मन यही सोचने लगता हैं कि आज की पत्रकारिता चंद लोगों की वजह से व्यवसाय का रुप अख्तियार करती जा रही है। पत्रकारिता के जूनून और सोच वाले शायद कुछ ही पत्रकार बचे हैं। अभी कुछ दिन पूर्व एक मशहूर फिल्म डायरेक्टर ने हमारी मीडिया के ऊपर फिल्म बनाई तो हम सभी एक छत के नीचे आ गये थे क्योंकि कल तक हम खबर लिखते थे और आज हम खुद खबर बनने जा रहे थे। लेकिन क्या कभी हमने गौर किया है कि ऐसा क्यो हुआ? क्यों कि आज पत्रकारिता का स्तर गिरता जा रहा हैं। हर आम व्यक्ति को मीडिया का ग्लैमर और पैसा कमाने की चाह उसे इस ओर खीच लाती हैं। इन लोगो को पत्रकारिता के जज्बे एवं जूनून से कोई मतलब नहीं। उन्हें तो केवल अपने पैसे को दो से चार गुना करना होता है और सबसे दिलचस्प पहलू ये है कि इन्हे पत्रकारिता का “प” भी नही आता। ये पत्रकारिता के उन चन्द दलालों को अपने साथ जोड़ते है, जिनका ध्येय पत्रकारिता नही सिर्फ दलाली हैं। उन्हे शाम होते ही शराब, मांस और पैसे की जरुरत होती जिसका ये फर्जीवाड़े वाले बेहतर फायदा उठाते है और दिल खोल कर इन पर धन वर्षा करते है, क्योंकि ये इनके भष्विय के ड्राफ्ट होते हैं।

दो माह पूर्व कुछ इस तरह का अनुभव मुझे भी हुआ। मुझे किसी ने बताया कि एक नया न्यूज चैनल आ रही है ”मी न्यूज“ मैने वहां अपना बायोडाटा भेजा और जब मैं वहां पहुंचा तो मुझसे मेरी काबलियत की बजाये पूछा गया कि आप उत्तरपदेश से कितना पैसा निकाल कर देगे? मैं बोला कि मुझे इसका कुछ भी आईडिया नही है, क्योंकि मैंने आज तक सिर्फ शुद्ध पत्रकारिता की है। मैं खबर और स्टोरी आपको सबसे बेहतर दे सकता हूँ। शायद मेरी फेस वैल्यू को देखते हुये उन्होने मुझे उत्तरप्रदेश का ब्यूरो में नियुक्त कर दिया और कुछ समय बाद मुझसे न्यूज कार्डिनेटर का पद सम्भालने को भी कहा गया ( बिना लिखा - पढ़ी के और शायद यही मेरे जीवन की सबसे गलती थी, क्योंकि जिन्हे पत्रकारिता का पा नही मालूम वो जा रहे थे न्यूज चैनल चलाने)। मैंने लखनऊ में कार्यालय बनाकर खबरो का संकलन करना प्रारम्भ किया। कुछ दिन बाद मुझे दिल्ली के एक पत्रकार मित्र ने चैनल के मालिक और इस चैनल की हकीकत बताई कि इनका तो लाईसेन्स ही नही है। तो मैने इस्तीफा देकर अपनी छवि बचाना उचित समझा (मेरे पारिश्रमिक का भुगतान अभी तक नही किया गया)। इस बात से मुझे ये तो अनुमान हो गया कि इन्हे पत्रकार की नही दलाल की जरूरत थी, जो अपने चेहरे को बेच कर इनकी तिजोरी भर सके। इस घटना से मैं काफी आहत हुआ, और अधिक जानकारी करने पर पता चला कि मीडिया का गढ़ कहे जाने वाली दिल्ली में इनकी छवि अच्छी नही हैंमुझे लगा कि जिस तरह मैं इस फर्जीवाड़े का शिकार होते - होते बच गया। कहीं और पत्रकार बंधू इस फर्जीवाड़े के शिकार न हो जाये। इसके लिये मैने सूंचना एंव प्रसारण मंत्रालय और वेबसाईट के माध्यम से यह खबर आम लोगो तक पहुँचाने का प्रयास किया। जिसके फलस्वरूप मुझे फोन पर धमकियाँ मिलनी शुरू हो गयी और मुझसे ये कहा जा रहा है कि तुम्हे इसका सबक जरूर सिखायेगे। हालांकि जब मैं पत्रकारिता में आया था तो यह सोच कर आया था कि अपनी कलम से केवल सच लिखूंगा और यह कभी नही रूकेगी। लेकिन आज मन के किसी कोने में ये आशंका भी हो रही है कि इन फर्जी कार्य करने वालो की कोई अपनी छवि तो होती नही है, लेकिन ये मुझे किसी कृत्य में फंसा कर मेरी छवि को धूमिल करने का प्रयास जरूर करेगें।मैं आप सभी पत्रकार बंधुओं से पूछना चाहता हूँ कि क्या सच्चाई लिखना गलत है, क्या पत्रकारिता के इन दलालो को इस परिसर से बाहर नही निकालना चाहिये? क्योंकि काम तो ये करते है और बदनाम हम होते हैं। शायद कुछ यही कारण रहे है कि ”कल तक हम खबर लिखते थे और आज खुद खबर बन गये हैं।“

कमाल की चीज है बाजार.....

बाजार भी कमाल की चीज है। कल तक जिस बीड़ी जलइएले.. गाती हुई,नंगी कमर को मटकाती हुई लड़की को देखकर देश के ठुल्ले तक अपने को रोक नहीं पाए,उस गाने का ऐसा असर कि अच्छों-अच्छों पर ठरक चढ़ जाए,आज उसी गाने के दम पर भक्ति पैदा करने के दावे किए जा रहे हैं। हिन्दी सिनेमा के पॉपुलर और सुपरहिट गानों की पैरोड़ी बनाकर मंदिरों,माता जागरण से लेकर पान की दूकान और चूडी-बिन्दी बेची जानेवाली दूकानों में बजाने का काम सालों से होता आया है। ऐसी पैरोड़ी बनाने में टी-सीरिज को महारथ हासिल है। गोरी हो कलइयां को बाबा के दुअरिया,पहुंचा दे हमें भइया,कांटा लगा,हाय लगा को भोले बाबा मिला,हाय मिला-हाय मिला और आंख है भरी-भरी को भक्त है दुखी-दुखी गाया-बजाया जाता है तो हमें जरा भी हैरानी नहीं होती। बल्कि हमने उसी परिवेश में रहकर अपने को धार्मिक पाखंड़ों से अलग किया है। हैरानी इस बात को लेकर हुई कि बीड़ी जलइएले गाने की पूरी पैरॉडी BIG 92.7 एफ.एम. पर सुनाई दिया। इसके पहले हमने ऐसी पैरॉडी किसी भी एफ.एम.चैनल पर नहीं सुनी।

वैसे तो धर्म,पाखंड और भक्ति की राह दिखानेवाले बाबा और धार्मिक अड्डे पहले से ही कई तरह के दावे करते रहे हैं लेकिन ये दावा पहली बार है कि बीड़ी जलइए गाने के बीच से भक्ति का सोता फूट सकता है। ये वही समाज है जहां स्त्री की हर निगाह,उसकी एक-एक हरकत धार्मिक कामों में बाधा पैदा करती रही है लेकिन धर्म का बाजार के साथ का ये गठजोड़ ही है जो उसके भीतर ऐसी कॉन्फीडेंस पैदा करता है कि जिस गाने को सुनकर शराब,कबाब और शवाब की तरफ मन स्भाभाविक तरीके से भटक जाया करता है,आज उस गाने से बीड़ी या सिगरेट जलाने के बजाय 'मातारानी'के लिए ज्योत जलाने का मन करने लग जाता है। गाने को गाते हुए अदाओं में चूर बिल्लो रानी का ध्यान न आकर मातारानी शेरोवाली का ध्यान आएगा। ये हम नहीं कह रहे हैं,गाने की पंक्तियों में ये बात शामिल है। धर्म और बाजार के गठजोड़ से पैदा ये धर्म का नया संस्करण है। एफ.एम चैनलों पर मनोरंजन और इस पैरोडी से लिस्नर और भक्त के बीच का एक कन्वर्जेंस।
इस देश मैं और संभव है कि इस दुनिया से बाहर भी धर्म का एक ऐसा संस्करण तेजी से पनप रहा है जिसने कि बाजार से,बॉलीवुड से,टीवी सीरियल से,रियलिटी शो से गठजोड़ करके अपने को रिडिफाइन किया है। धर्म के इस नए संस्करण से भक्ति कितनी और किस स्तर की पैदा होती है ये तो इसमें जो लोग शामिल होते हैं और हैं वही बता सकते हैं लेकिन इतना जरुर हुआ है कि बाजार ने अपनी ताकतों के दम पर धार्मिक पाखंड़ों के इस दायरे को जरुर बड़ा किया है. उन लोगों को खींचकर इस दायरे में लाने की जरुरी कोशिश की है जो आया तो अपने बाजार की हैसियत से है लेकिन आने के बाद से उसके दावे बाजार के छोड़कर धार्मिक होने के हो जाता है। ये धर्म और बाजार का फ्यूजन का दौर है कि जो बाजार के भरोसे जिंदा है उसे धार्मिक होते देर नहीं लगता और जो धार्मिक(भीमानंद सहित रोजमर्रा की जिंदगी से उकताए लोग)हैं उन्हें बाजार की तमाम तरह की सुविधाओं के बीच रहते हुए भी धार्मिक कहलाने की छूट मिल जाती है। ऐसा होने से धर्म,मूल्य,आस्था और अनास्था के सारे सवाल फैन कल्चर की तरफ मुड़ जाते हैं और सारा मामला स्टाइल और च्वाइस का हो जाता है। इससे धर्म की बात सुनकर भी धार्मिक होने का कम्पल्शन खत्म हो जाता है। दूसरी तरफ धर्म के भीतर प्लेजर और इंटरटेन्मेंट पैदा होने की गुंजाइश तेजी से बढ़ती है। अब ये अलग बात है कि धर्म के नाम पर दूकान चलानेवाले बाबाओं को खुशफहमी होती रहे कि उनके भक्तों की संख्या बढञती रहे,इधर बाजार भी इत्मिनान होता रहे कि चलो जिस धर्म की पताका त्याज्य और संयम पर टिकी रही है उसे हमने उपभोग तक लाकर खड़ा कर दिया।..इन दोनों में किसका दायरा बढ़ा है और कौन पिट रहा है,ये फैसला आप पर।

सब कुछ कह लेने के बाद .....

सब कुछ कह लेने के बाद




सब कुछ कह लेने के बाद

कुछ ऐसा है जो रह जाता है,

तुम उसको मत वाणी देना ।



वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,

वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की,

वह सारी रचना का क्रम है,

वह जीवन का संचित श्रम है,

बस उतना ही मैं हूँ,

बस उतना ही मेरा आश्रय है,

तुम उसको मत वाणी देना ।



वह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है,

सच्चाई है-अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है,

वह यति है-हर गति को नया जन्म देती है,

आस्था है-रेती में भी नौका खेती है,

वह टूटे मन का सामर्थ है,

वह भटकी आत्मा का अर्थ है,

तुम उसको मत वाणी देना ।



वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है,

वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,

बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,

इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,



अन्तराल है वह-नया सूर्य उगा लेती है,

नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है,

वह मेरी कृति है

पर मैं उसकी अनुकृति हूँ,

तुम उसको मत वाणी देना ।

Sunday, March 21, 2010

जीवन वैतरणी में चलते हुए.........

जीवन वैतरणी में चलते हुए


एक दिन

संवेदनाएँ मरने लगीं

भावनाएँ आहत होने लगीं

साथ जो कभी अपना था

बेमानी लगने लगा

ख़ुद अपनी लाश

ढोने से अच्छा है

रास्ता बदल लिया जाए

दो छत्ती से अरमान उतार

बिखरे आत्मसम्मान की पोटली लिए

आशा की पगडण्डी

पर चल निकली

हवा के तीर

राहों में पड़े शब्द

पांव छिलते रहे

पर थामे सूरज का हाथ चलती रही

हजारों उँगलियाँ मेरी ओर थीं

कटाक्ष के बवंडर

आँखों में चुभे

रूह तक नंगा करते रहे

गर्द के गुबार में

खुद को छुपाती में चलती रही

कुलछनी, कुलटा, व्यभिचारिणी

ऐसी संज्ञाओं के पत्थर

मुझ पर बरसते रहे

मेरी घायल अस्मिता

दरद से तड़प उठी

पर स्वयं अपने सहारे

मैं चलती रही

इस पीड़ा में

मधुरता का अहसास लिए

शुभ लक्षण का

मुझमें प्रादुर्भाव हुआ

एक औरत

इन उल्काओं का सामना कर भी ले

पर माँ ..............नहीं

बिखरे जिस्म के टुकडों को समेट

रक्तरंजित पैरों से

स्वाभिमान को कुचलती

स्वयं से स्वयं को हारती

ममता को आगोश में लिए

मैं वापस मुड़ गई।

मोहब्बतों में कब इतना हिसाब होता है ..

कहाँ सवाब,कहाँ क्या अजाब होता है ..


मोहब्बतों में कब इतना हिसाब होता है ..



बिछड़ के मुझसे तुम अपनी काशिश न खो देना ,

उदास रहने से चेहरा खराब होता है ..



उसे पता ही नहीं है कि प्यार कि बाज़ी,

जो हार जाये ,वही कामयाब होता है..



बहुत भरोसा न कर लेना अपनी आंखों पर,

दिखाई देता है जो कुछ ,वो ख्वाब होता है ..